बहुत आसान है मुश्तरका दिलों में तफ़रीक़
बात तो जब है कि बिछड़ों को मिलाया जाए
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चढ़ते तूफ़ान को साहिल से गुज़रना था मियाँ
हम फ़ितरतन इंसाँ हैं फ़रिश्ते तो नहीं हैं
सच ये है हम ही मोहब्बत का सबक़ पढ़ न सके
दर्द-ए-दिल की दवा है माह-ए-नौ
है तक़ाज़ा-ए-तहज़ीब 'अनवर'
बे-घर था फिर छोड़ गया घर जाने क्यूँ
रात का क्या ज़िक्र है शाम-ओ-सहर आया नहीं
शहर की गलियों और सड़कों पर फिरते हैं मायूसी में
हुस्न ऐसा कि ज़माने में नहीं जिस की मिसाल
कैसा मक़ाम आया मोहब्बत की राह में
ज़िंदगी अपनी ख़्वाब जैसी है
रोज़ उठ जाती है घर में कोई दीवार नई