मुस्कुराए बग़ैर भी वो होंट
नज़र आते हैं मुस्कुराए हुए
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इस तअल्लुक़ में नहीं मुमकिन तलाक़
ज़बाँ ज़बाँ पे है एलान-ए-तर्क-ए-तम्बाकू
चले आया करो मेरी तरफ़ भी!
अगरचे आइना-ए-दिल में है क़याम उस का
'शुऊर' तुम ने ख़ुदा जाने क्या किया होगा
पियो कि मा-हसल-ए-होश किस ने देखा है
रही रात उन से मुलाक़ात कम
मिरी हयात है बस रात के अँधेरे तक
और न दर-ब-दर फिरा और न आज़मा मुझे
वो रंग रंग के छींटे पड़े कि उस के ब'अद
वो मुझ से रूठ न जाती तो और क्या करती
ज़िंदगी की ज़रूरतों का यहाँ