ज़बाँ ज़बाँ पे है एलान-ए-तर्क-ए-तम्बाकू
तुयूर आम ये पैग़ाम हर तरफ़ कर दें
हमें ये फ़िक्र है लाहक़ कि ऐसे आलम में
नवाब-ज़ादा न हुक़्क़े को बरतरफ़ कर दें
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उस बज़्म में क्या कोई सुने राय हमारी
ऐसे देखा है कि देखा ही न हो
क्या बे-मुरव्वती का शिकवा गिला किसी से
बुरा बुरे के अलावा भला भी होता है
उन की सूरत हमें आई थी पसंद आँखों से
कुछ दिनों अपने घर रहा हूँ मैं
अगरचे आइना-ए-दिल में है क़याम उस का
निज़ाम-ए-ज़र में किसी और काम का क्या हो
ठहर सकती है कहाँ उस रुख़-ए-ताबाँ पे नज़र
फ़रिश्तों से भी अच्छा मैं बुरा होने से पहले था
हवस बला की मोहब्बत हमें बला की है
'शुऊर' ख़ुद को ज़हीन आदमी समझते हैं