हाँ समुंदर में उतर लेकिन उभरने की भी सोच
डूबने से पहले गहराई का अंदाज़ा लगा
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देख रह जाए न तू ख़्वाहिश के गुम्बद में असीर
अज़ाब-ए-बे-दिली-ए-जान-ए-मुब्तला न गया
ज़ंजीर से उठती है सदा सहमी हुई सी
बस यूँही तन्हा रहूँगा इस सफ़र में उम्र भर
मैं पैरवी-ए-अहल-ए-सियासत नहीं करता
हम हद-ए-इंदिमाल से भी गए
क्या साथ तिरा दूँ कि मैं इक मौज-ए-हवा हूँ
संग-ए-दर उस का हर इक दर पे लगा मिलता है
बाज़-गश्त
इसे कहना
हम ने चाहा था तेरी चाल चलें
आख़िर हम ने तौर पुराना छोड़ दिया