बिला-सबब तो कोई बर्ग भी नहीं हिलता
तू अपने आज पे असरात कल के देख ज़रा
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ज़िम्मेदारी
कभी उन का नहीं आना ख़बर के ज़ैल में था
हर एक लम्हा-ए-ग़म बहर-ए-बे-कराँ की तरह
ख़ाक-ए-सहरा तो बहुत दूर है ऐ वहशत-ए-दिल
ज़माना कुछ भी कहे तेरी आरज़ू कर लूँ
धूप छाँव के दरमियाँ
कुछ तो मिल जाए कहीं दीदा-ए-पुर-नम के सिवा
तलातुम है न जाँ-लेवा भँवर है
कभी अंगड़ाई ले कर जब समुंदर जाग उठता है
मुझ को तलाश करते हो औरों के दरमियाँ
ख़दशा