फ़ज़ा है तीरा ओ तारीक और उस का ख़याल
न जाने कौन सी दुनिया में जा के सोया है
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हो इंतिज़ार किसी का मगर मिरी नज़रें
फ़ज़ाएँ कैफ़-ए-बहाराँ से जब महकती हैं
क़ल्ब-ओ-नज़र का सुकूँ और कहाँ दोस्तो
न पयाम चाहते हैं न कलाम चाहते हैं
मयख़ाने पे छाई है अफ़्सुर्दा-शबी कब से
दिलों से यास-ओ-अलम के नक़ाब उतारो तो
वो जिस ने मेरे दिल ओ जाँ में दर्द बोया है
हमें मिट के भी ये हसरत कि भटकते उस गली में