गिर भी जाती नहीं कम-बख़्त कि फ़ुर्सत हो जाए
कौंदती रहती है बिजली मिरे ख़िर्मन के क़रीब
Wasi Shah
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Javed Akhtar
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Mir Taqi Mir
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Gulzar
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हमेशा तंग रहा मुझ पे ज़िंदगी का लिबास
आने वाले दौर में जो पाएगा पैग़म्बरी
अनार्किज़्म
बे-निशान क़दमों की कहकशाँ पकड़ते हैं
इस से पहले कि हवा मुझ को उड़ा ले जाए
मोहब्बत कर के शर्मिंदा नहीं हूँ
ये तो सच है कि टूटे फूटे हैं
मेरे ही पाँव मिरे सब से बड़े दुश्मन हैं
ज़िक्र-ए-अस्लाफ़ से बेहतर है कि ख़ामोश रहें
बच्चे खुली फ़ज़ा में कहाँ तक निकल गए
जो सज़ा चाहो मोहब्बत से दो यारो मुझ को
बस्ती मिली मकान मिले बाम-ओ-दर मिले