दीवार-ए-ख़स्तगी हूँ मुझे हाथ मत लगा
मैं गिर पड़ूँगा देख मुझे आसरा न दे
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हर शख़्स इस हुजूम में तन्हा दिखाई दे
फ़क़त हर्फ़-ए-तमन्ना क्या है
जाने वाले को कहाँ रोक सका है कोई
एक समुंदर एक किनारा एक सितारा काफ़ी है
हमारे हाथ फ़क़त रेत के सदफ़ आए
जिसे दरपेश जुदाई हो उसे क्या मालूम
एक नज़्म
मय-शिकस्ता-दिली ऐ हरीफ़-ए-ज़ौक़-ए-नुमू
उड़ा है रफ़्ता रफ़्ता रंग तस्वीर-ए-मोहब्बत का
वो नख़्ल जो बार-वर हुए हैं
कुछ तो ग़म-ख़ाना-ए-हस्ती में उजाला होता