सिलसिला रोने का सदियों से चला आता है
कोई आँसू मिरी पलकों पे ठहरता ही नहीं
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धूप के बादल बरस कर जा चुके थे और मैं
मैं ने अपनी ख़्वाहिशों का क़त्ल ख़ुद ही कर दिया
वक़्त का कुछ रुका सा धारा है
आँखों से मैं ने चख लिया मौसम के ज़हर को
रास्ता सुनसान था तो मुड़ के देखा क्यूँ नहीं
यादों का लम्स ज़ेहन को छू कर गुज़र गया
अंजाम
कोई दीवार सलामत है न अब छत मेरी
हमारी याद उन्हें आ गई तो क्या होगा
उड़ते लम्हों के भँवर में कोई फँसता ही नहीं
कहीं पे क़ुर्ब की लज़्ज़त का इक़्तिबास नहीं