शाम की धुँद
आज
क्यूँ गहरी हुई
मेरे एहसास की रग रग में
ये नश्तर सा लगाया किस ने
दूर तक फैल गया
शबनमी लम्हों का ग़ुबार
गर्म पानी की मिरी पलकों पे
होती रहती है फुवार
और मिट्टी का बना मेरा वजूद
चंद लम्हों में पिघल जाता है
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वो क्या है कौन है ये तो ज़रा बता मुझ को
ज़हर
फेंका था किस ने संग-ए-हवस रात ख़्वाब में
कतबा
आँखों से मैं ने चख लिया मौसम के ज़हर को
रास्ता सुनसान था तो मुड़ के देखा क्यूँ नहीं
कहीं पे क़ुर्ब की लज़्ज़त का इक़्तिबास नहीं
वक़्त का कुछ रुका सा धारा है
हज़ार बार निगाहों से चूम कर देखा
अजीब शख़्स है मुझ को तो वो दिवाना लगे