फेंका था किस ने संग-ए-हवस रात ख़्वाब में
फिर ढूँढती है नींद उसी पिछले पहर को
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जगमगाती ख़्वाहिशों का नूर फैला रात भर
अपना मकान भी था उसी मोड़ पर मगर
हज़ार बार निगाहों से चूम कर देखा
किसी तरह न तिलिस्म-ए-सुकूत टूट सका
रास्ता सुनसान था तो मुड़ के देखा क्यूँ नहीं
कोई दीवार सलामत है न अब छत मेरी
दोस्तों के साथ दिन में बैठ कर हँसता रहा
हमारी याद उन्हें आ गई तो क्या होगा
न दश्त ओ दर से अलग था न जंगलों से जुदा
कहीं पे क़ुर्ब की लज़्ज़त का इक़्तिबास नहीं
अंजाम
सिलसिला रोने का सदियों से चला आता है