अपना मकान भी था उसी मोड़ पर मगर
जाने मैं किस ख़याल में औरों के घर गया
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किसी तरह न तिलिस्म-ए-सुकूत टूट सका
वक़्त का कुछ रुका सा धारा है
हमारे बीच वो चुप-चाप बैठा रहता है
सिलसिला रोने का सदियों से चला आता है
दोस्तों के साथ दिन में बैठ कर हँसता रहा
आहट
आँखों से मैं ने चख लिया मौसम के ज़हर को
बस एक बार उसे रौशनी में देखा था
हमारी याद उन्हें आ गई तो क्या होगा
कतबा
वो क्या है कौन है ये तो ज़रा बता मुझ को