धूप के बादल बरस कर जा चुके थे और मैं
ओढ़ कर शबनम की चादर छत पे सोया रात भर
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अपना मकान भी था उसी मोड़ पर मगर
रास्ता सुनसान था तो मुड़ के देखा क्यूँ नहीं
उड़ते लम्हों के भँवर में कोई फँसता ही नहीं
हज़ार बार निगाहों से चूम कर देखा
किश्त-ए-दिल वीराँ सही तुख़्म-ए-हवस बोया नहीं
अंजाम
हमारे बीच वो चुप-चाप बैठा रहता है
हर सू है तारीकी छाई तुम भी चुप और हम भी चुप
फेंका था किस ने संग-ए-हवस रात ख़्वाब में
कहीं पे क़ुर्ब की लज़्ज़त का इक़्तिबास नहीं
आहट