हज़ार बार निगाहों से चूम कर देखा
लबों पे उस के वो पहली सी अब मिठास नहीं
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आहट
आँखों से मैं ने चख लिया मौसम के ज़हर को
अपना मकान भी था उसी मोड़ पर मगर
बस एक बार उसे रौशनी में देखा था
वो क्या है कौन है ये तो ज़रा बता मुझ को
यादों का लम्स ज़ेहन को छू कर गुज़र गया
अजीब शख़्स है मुझ को तो वो दिवाना लगे
अंजाम
किसी तरह न तिलिस्म-ए-सुकूत टूट सका
हर सू है तारीकी छाई तुम भी चुप और हम भी चुप
सिलसिला रोने का सदियों से चला आता है
कोई दीवार सलामत है न अब छत मेरी