कोई दीवार सलामत है न अब छत मेरी
ख़ाना-ए-ख़स्ता की सूरत हुई हालत मेरी
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हर सू है तारीकी छाई तुम भी चुप और हम भी चुप
धूप के बादल बरस कर जा चुके थे और मैं
कहीं पे क़ुर्ब की लज़्ज़त का इक़्तिबास नहीं
मैं ने अपनी ख़्वाहिशों का क़त्ल ख़ुद ही कर दिया
न दश्त ओ दर से अलग था न जंगलों से जुदा
हमारी याद उन्हें आ गई तो क्या होगा
उड़ते लम्हों के भँवर में कोई फँसता ही नहीं
वो क्या है कौन है ये तो ज़रा बता मुझ को
अंजाम
दोस्तों के साथ दिन में बैठ कर हँसता रहा