न दश्त ओ दर से अलग था न जंगलों से जुदा
वो अपने शहर में रहता था फिर भी तन्हा था
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अजीब शख़्स है मुझ को तो वो दिवाना लगे
वो क्या है कौन है ये तो ज़रा बता मुझ को
हमारी याद उन्हें आ गई तो क्या होगा
आहट
बस एक बार उसे रौशनी में देखा था
फेंका था किस ने संग-ए-हवस रात ख़्वाब में
आँखों से मैं ने चख लिया मौसम के ज़हर को
यादों का लम्स ज़ेहन को छू कर गुज़र गया
सिलसिला रोने का सदियों से चला आता है
कहीं पे क़ुर्ब की लज़्ज़त का इक़्तिबास नहीं
किश्त-ए-दिल वीराँ सही तुख़्म-ए-हवस बोया नहीं
धूप के बादल बरस कर जा चुके थे और मैं