जाने किस लम्हा-ए-वहशी की तलब है कि फ़लक
देखना चाहे मिरे शहर को जंगल कर के
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'असलम' बड़े वक़ार से डिग्री वसूल की
हर-चंद बे-नवा है कोरे घड़े का पानी
रूठ कर निकला तो वो उस सम्त आया भी नहीं
क़रीब आ के भी इक शख़्स हो सका न मिरा
ग़म की सौग़ात है ख़मोशी है
जब मैं उस के गाँव से बाहर निकला था
हमारी जीत हुई है कि दोनों हारे हैं
रूठ कर निकला तो वो इस सम्त आया भी नहीं
काँटे से भी निचोड़ ली ग़ैरों ने बू-ए-गुल
ज़लज़ले का ख़ौफ़ तारी है दर-ओ-दीवार पर
आरज़ू-ए-दवाम करता हूँ