'असलम' बड़े वक़ार से डिग्री वसूल की
और इस के बा'द शहर में ख़्वांचा लगा लिया
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हर-चंद बे-नवा है कोरे घड़े का पानी
क़रीब आ के भी इक शख़्स हो सका न मिरा
जब भी हँसी की गर्द में चेहरा छुपा लिया
सोच की उलझी हुई झाड़ी की जानिब जो गई
हमारी जीत हुई है कि दोनों हारे हैं
ज़ख़्म सहे मज़दूरी की
वही ख़्वाबीदा ख़ामोशी वही तारीक तन्हाई
जब मैं उस के गाँव से बाहर निकला था
आरज़ू-ए-दवाम करता हूँ
दिल-ए-पुर-ख़ूँ को यादों से उलझता छोड़ देते हैं