जब मैं उस के गाँव से बाहर निकला था
हर रस्ते ने मेरा रस्ता रोका था
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सीने में सुलगते हुए लम्हात का जंगल
रूठ कर निकला तो वो इस सम्त आया भी नहीं
क़रीब आ के भी इक शख़्स हो सका न मिरा
सोच की उलझी हुई झाड़ी की जानिब जो गई
बिखरे बिखरे बाल और सूरत खोई खोई
काँटे से भी निचोड़ ली ग़ैरों ने बू-ए-गुल
ईद का दिन है सो कमरे में पड़ा हूँ 'असलम'
रूठ कर निकला तो वो उस सम्त आया भी नहीं
दयार-ए-हिज्र में ख़ुद को तो अक्सर भूल जाता हूँ
ज़लज़ले का ख़ौफ़ तारी है दर-ओ-दीवार पर
सिर्फ़ मेरे लिए नहीं रहना