ईद का दिन है सो कमरे में पड़ा हूँ 'असलम'
अपने दरवाज़े को बाहर से मुक़फ़्फ़ल कर के
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हमारी जीत हुई है कि दोनों हारे हैं
आरज़ू-ए-दवाम करता हूँ
रूठ कर निकला तो वो उस सम्त आया भी नहीं
सिर्फ़ मेरे लिए नहीं रहना
वही ख़्वाबीदा ख़ामोशी वही तारीक तन्हाई
रूठ कर निकला तो वो इस सम्त आया भी नहीं
दिल-ए-पुर-ख़ूँ को यादों से उलझता छोड़ देते हैं
नज़र को वक़्फ़-ए-हैरत कर दिया है
'असलम' बड़े वक़ार से डिग्री वसूल की
क़रीब आ के भी इक शख़्स हो सका न मिरा
जब मैं उस के गाँव से बाहर निकला था
काँटे से भी निचोड़ ली ग़ैरों ने बू-ए-गुल