आप की मख़्मूर आँखों की क़सम
मेरी मय-ख़्वारी अभी तक राज़ है
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मिरी बर्बादियों का हम-नशीनो
उन का जश्न-ए-साल-गिरह
तस्कीन-ए-दिल-ए-महज़ूँ न हुई वो सई-ए-करम फ़रमा भी गए
साज़गार है हमदम इन दिनों जहाँ अपना
अयादत
इलाहाबाद से
छुप गए वो साज़-ए-हस्ती छेड़ कर
साक़ी-ए-गुलफ़ाम बा-सद एहतिमाम आ ही गया
शौक़-ए-गुरेज़ाँ
मुझे साग़र दोबारा मिल गया है
कब किया था इस दिल पर हुस्न ने करम इतना
आसमाँ तक जो नाला पहुँचा है