कब किया था इस दिल पर हुस्न ने करम इतना
मेहरबाँ और इस दर्जा कब था आसमाँ अपना
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इश्क़ का ज़ौक़-ए-नज़ारा मुफ़्त में बदनाम है
नज़्र-ए-दिल
ख़ामुशी का तो नाम होता है
डुबो दी थी जहाँ तूफ़ाँ ने कश्ती
कुछ तुम्हारी निगाह काफ़िर थी
सब का तो मुदावा कर डाला अपना ही मुदावा कर न सके
हुस्न को बे-हिजाब होना था
ये जहाँ बारगह-ए-रित्ल-ए-गिराँ है साक़ी
आओ अब मिल के गुलिस्ताँ को गुल्सिताँ कर दें
ये मेरी दुनिया ये मेरी हस्ती
रात और रेल
नज़्र-ए-अलीगढ़