इज़्न-ए-ख़िराम लेते हुए आसमाँ से हम
हट कर चले हैं रहगुज़र-ए-कारवाँ से हम
Wasi Shah
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Allama Iqbal
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Gulzar
Rahat Indori
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Parveen Shakir
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साज़गार है हमदम इन दिनों जहाँ अपना
अक़्ल की सतह से कुछ और उभर जाना था
ताज जब मर्द के माथे पे नज़र आता है
दफ़्न कर सकता हूँ सीने में तुम्हारे राज़ को
नूरा
तआरुफ़
कमाल-ए-इश्क़ है दीवाना हो गया हूँ मैं
नज़्र-ए-दिल
शौक़-ए-गुरेज़ाँ
दिल-ए-ख़ूँ-गश्ता-ए-जफ़ा पे कहीं
परतव-ए-साग़र-ए-सहबा क्या था
ये तीरगी-ए-शब ही कुछ सुब्ह-तराज़ आती