नूरा

वो नौ-ख़ेज़ नूरा वो इक बिन्त-ए-मरियम

वो मख़मूर आँखें वो गेसू-ए-पुर-ख़म

वो अर्ज़-ए-कलीसा की इक माह-पारा

वो दैर-ओ-हरम के लिए इक शरारा

वो फ़िरदौस-ए-मरियम का इक ग़ुंचा-ए-तर

वो तसलीस की दुख़्तर-ए-नेक-अख़्तर

वो इक नर्स थी चारा-गर जिस को कहिए

मदावा-ए-दर्द-ए-जिगर जिस को कहिए

जवानी से तिफ़्ली गले मिल रही थी

हवा चल रही थी कली खिल रही थी

वो पुर-रोब तेवर वो शादाब चेहरा

मता-ए-जवानी पे फ़ितरत का पहरा

मिरी हुक्मरानी है अहल-ए-ज़मीं पर

ये तहरीर था साफ़ उस की जबीं पर

सफ़ेद और शफ़्फ़ाफ़ कपड़े पहन कर

मिरे पास आती थी इक हूर बन कर

वो इक आसमानी फ़रिश्ता थी गोया

कि अंदाज़ था उस में जिब्रईल का सा

वो इक मरमरीं हूर ख़ुल्द-ए-बरीं की

वो ताबीर आज़र के ख़्वाब-ए-हसीं की

वो तस्कीन-ए-दिल थी सुकून-ए-नज़र थी

निगार-ए-शफ़क़ थी जमाल-ए-नज़र थी

वो शो'ला वो बिजली वो जल्वा वो परतव

सुलैमाँ की वो इक कनीज़-ए-सुबुक-रौ

कभी उस की शोख़ी में संजीदगी थी

कभी उस की संजीदगी में भी शोख़ी

घड़ी चुप घड़ी करने लगती थी बातें

सिरहाने मिरे काट देती थी रातें

अजब चीज़ थी वो अजब राज़ थी वो

कभी सोज़ थी वो कभी साज़ थी वो

नक़ाहत के आलम में जब आँख उठती

नज़र मुझ को आती मोहब्बत की देवी

वो उस वक़्त इक पैकर-ए-नूर होती

तख़य्युल की पर्वाज़ से दूर होती

हंसाती थी मुझ को सुलाती थी मुझ को

दवा अपने हाथों से मुझ को पिलाती

अब अच्छे हो हर रोज़ मुज़्दा सुनाती

सिरहाने मिरे एक दिन सर झुकाए

वो बैठी थी तकिए पे कुहनी टिकाए

ख़यालात-ए-पैहम में खोई हुई सी

न जागी हुई सी न सोई हुई सी

झपकती हुई बार बार उस की पलकें

जबीं पर शिकन बे-क़रार उस की पलकें

वो आँखों के साग़र छलकते हुए से

वो आरिज़ के शोले भड़कते हुए से

लबों में था लाल-ओ-गुहर का ख़ज़ाना

नज़र आरिफ़ाना अदा राहिबाना

महक गेसुओं से चली आ रही थी

मिरे हर नफ़स में बसी जा रही थी

मुझे लेटे लेटे शरारत की सूझी

जो सूझी भी तो किस क़यामत की सूझी

ज़रा बढ़ के कुछ और गर्दन झुका ली

लब-ए-लाल-ए-अफ़्शाँ से इक शय चुरा ली

वो शय जिस को अब क्या कहूँ क्या समझिए

बेहिश्त-ए-जवानी का तोहफ़ा समझिए

शराब-ए-मोहब्बत का इक जाम-ए-रंगीं

सुबू-ज़ार-ए-फ़ितरत का इक जाम-ए-रंगीं

मैं समझा था शायद बिगड़ जाएगी वो

हवाओं से लड़ती है लड़ जाएगी वो

मैं देखूँगा उस के बिफरने का आलम

जवानी का ग़ुस्सा बिखरने का आलम

इधर दिल में इक शोर-ए-महशर बपा था

मगर उस तरफ़ रंग ही दूसरा था

हँसी और हँसी इस तरह खिलखिला कर

कि शम-ए-हया रह गई झिलमिला कर

नहीं जानती है मिरा नाम तक वो

मगर भेज देती है पैग़ाम तक वो

ये पैग़ाम आते ही रहते हैं अक्सर

कि किस रोज़ आओगे बीमार हो कर

(1092) Peoples Rate This

Your Thoughts and Comments

Nura In Hindi By Famous Poet Asrar-ul-Haq Majaz. Nura is written by Asrar-ul-Haq Majaz. Complete Poem Nura in Hindi by Asrar-ul-Haq Majaz. Download free Nura Poem for Youth in PDF. Nura is a Poem on Inspiration for young students. Share Nura with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.