मसरूफ़ हम भी अंजुमन-आराइयों में थे
घर जल रहा था लोग तमाशाइयों में थे
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बरहनगी का मुदावा कोई लिबास न था
आने वाली कल की दे कर ख़बर गया ये दिन भी
यूँ पाबंद-ए-सलासिल हो कर कौन फिरे बाज़ारों में
राब्ता टूट न जाए कहीं ख़ुद-बीनी से
वो शख़्स जो नज़र आता था हर किसी की तरह
रौशनी के सिलसिले ख़्वाबों में ढल कर रह गए
सुलग रहा हूँ ख़ुद अपनी ही आग में कब से
अनजाने लोगों को हर सू चलता फिरता देख रहा हूँ
देखे-भाले रस्ते थे
ये साल तूल-ए-मसाफ़त से चूर चूर गया