सुलग रहा हूँ ख़ुद अपनी ही आग में कब से
ये मश्ग़ला तो मिरे दर्द की असास न था
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मसरूफ़ हम भी अंजुमन-आराइयों में थे
वो चाँद था बादलों में गुम था
यूँ पाबंद-ए-सलासिल हो कर कौन फिरे बाज़ारों में
राब्ता टूट न जाए कहीं ख़ुद-बीनी से
वो शख़्स जो नज़र आता था हर किसी की तरह
अनजाने लोगों को हर सू चलता फिरता देख रहा हूँ
आने वाली कल की दे कर ख़बर गया ये दिन भी
ये साल तूल-ए-मसाफ़त से चूर चूर गया
बरहनगी का मुदावा कोई लिबास न था
रौशनी के सिलसिले ख़्वाबों में ढल कर रह गए