हवा को ज़िद कि उड़ाएगी धूल हर सूरत
हमें ये धुन है कि आईना साफ़ करना है
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एक लम्हे को सही उस ने मुझे देखा तो है
लोगो हम तो एक ही सूरत में हथियार उठाते हैं
सारे मंज़र में समाया हुआ लगता है मुझे
पत्ता हूँ आँधियों के मुक़ाबिल खड़ा हूँ मैं
घनेरी छाँव के सपने बहुत दिखाए गए
जगह फूलों की रखते हैं घना साया बनाते हैं
मैं जिस लम्हे को ज़िंदा कर रहा हूँ मुद्दतों से
क्या तेरा क्या मेरा ख़्वाब
ये शख़्स जो तुझे आधा दिखाई देता है
सुब्ह कैसी है वहाँ शाम की रंगत क्या है
समझ में आ तो सकती है सबा की गुफ़्तुगू भी