ये शख़्स जो तुझे आधा दिखाई देता है
इस आधे शख़्स को अपना बना के देख कभी
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लहजे और आवाज़ में रक्खा जाता है
दश्त-ए-शब में पता ही नहीं चल सका
हम ने घर की सलामती के लिए
देर लगती है बहुत लौट के आते आते
सुब्ह कैसी है वहाँ शाम की रंगत क्या है
मेरे हरे वजूद से पहचान उस की थी
लोगो हम तो एक ही सूरत में हथियार उठाते हैं
ज़रा सी देर तुझे आइना दिखाया है
हवा को ज़िद कि उड़ाएगी धूल हर सूरत
जगह फूलों की रखते हैं घना साया बनाते हैं
कभी उस से दुआ की खेतियाँ सैराब करना
तुम उस की बातों में न आना