कभी उस से दुआ की खेतियाँ सैराब करना
जो पानी आँख के अंदर कहीं ठहरा हुआ है
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हम ने घर की सलामती के लिए
जब भी चाहूँ तेरा चेहरा सोच सकूँ
लहजे और आवाज़ में रक्खा जाता है
कुछ अब के रस्म-ए-जहाँ के ख़िलाफ़ करना है
दरीचों में चराग़ों की कमी महसूस होती है
उसे बाम-ए-पज़ीराई पे कैसे छोड़ दूँ अब
दश्त-ए-शब में पता ही नहीं चल सका
मेरे हरे वजूद से पहचान उस की थी
एक लम्हे को सही उस ने मुझे देखा तो है
दर-ओ-दीवार से डर लग रहा था
ऐ शहर-ए-सितम छोड़ के जाते हुए लोगो
बे-ख़्वाबी कब छुप सकती है काजल से भी