जो ज़िंदगी की माँग सजाते रहे सदा
क़िस्तों में बाँट कर उन्हें जीना दिया गया
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उसे बाम-ए-पज़ीराई पे कैसे छोड़ दूँ अब
सुब्ह कैसी है वहाँ शाम की रंगत क्या है
उसी ने सब से पहले हार मानी
दश्त-ए-शब में पता ही नहीं चल सका
शब भर आँख में भीगा था
हवा को ज़िद कि उड़ाएगी धूल हर सूरत
सारे मंज़र में समाया हुआ लगता है मुझे
हमें रोको नहीं हम ने बहुत से काम करने हैं
कुछ अब के रस्म-ए-जहाँ के ख़िलाफ़ करना है
हम उन की आस पे उम्रें गुज़ार देते हैं
जब भी चाहूँ तेरा चेहरा सोच सकूँ