हम उन की आस पे उम्रें गुज़ार देते हैं
वो मो'जिज़े जो कभी रूनुमा नहीं होते
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ज़रा सी देर तुझे आइना दिखाया है
दोनों हाथों से छुपा रक्खा है मुँह
वो शब के साए में फ़स्ल-ए-नशात काटते हैं
ये शख़्स जो तुझे आधा दिखाई देता है
उसे बाम-ए-पज़ीराई पे कैसे छोड़ दूँ अब
दिल प्यासा और आँख सवाली रह जाती है
हमें रोको नहीं हम ने बहुत से काम करने हैं
बे-ख़्वाबी कब छुप सकती है काजल से भी
इतना भी इंहिसार मिरे साए पर न कर
दश्त-ए-शब में पता ही नहीं चल सका
अपना जैसा भी हाल रक्खा है