ज़रा सी देर तुझे आइना दिखाया है
ज़रा सी बात पर इतने ख़फ़ा नहीं होते
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दश्त-ए-शब में पता ही नहीं चल सका
कभी उस से दुआ की खेतियाँ सैराब करना
लहजे और आवाज़ में रक्खा जाता है
सुब्ह कैसी है वहाँ शाम की रंगत क्या है
हम उन की आस पे उम्रें गुज़ार देते हैं
उसे बाम-ए-पज़ीराई पे कैसे छोड़ दूँ अब
उसी ने सब से पहले हार मानी
दरीचों में चराग़ों की कमी महसूस होती है
हमारे नाम की तख़्ती भी उन पे लग न सकी
जब भी चाहूँ तेरा चेहरा सोच सकूँ
इस लिए मैं ने मुहाफ़िज़ नहीं रक्खे अपने
सारे मंज़र में समाया हुआ लगता है मुझे