इस लिए मैं ने मुहाफ़िज़ नहीं रक्खे अपने
मिरे दुश्मन मिरे इस जिस्म से बाहर कम हैं
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बे-ख़्वाबी कब छुप सकती है काजल से भी
पत्ता हूँ आँधियों के मुक़ाबिल खड़ा हूँ मैं
क़ज़ा का तीर था कोई कमान से निकल गया
सुब्ह कैसी है वहाँ शाम की रंगत क्या है
उसे बाम-ए-पज़ीराई पे कैसे छोड़ दूँ अब
रौशनी हस्ब-ए-ज़रूरत भी नहीं माँगते हम
दर-ओ-दीवार से डर लग रहा था
दिल प्यासा और आँख सवाली रह जाती है
देर लगती है बहुत लौट के आते आते
दर टूटने लगे कभी दीवार गिर पड़े
ऐ शहर-ए-सितम छोड़ के जाते हुए लोगो