इतना भी इंहिसार मिरे साए पर न कर
क्या जाने कब ये मोम की दीवार गिर पड़े
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आज निकले याद की ज़म्बील से
लहजे और आवाज़ में रक्खा जाता है
दरीचों में चराग़ों की कमी महसूस होती है
इस लिए मैं ने मुहाफ़िज़ नहीं रक्खे अपने
शब भर आँख में भीगा था
दश्त-ए-शब में पता ही नहीं चल सका
उसे बाम-ए-पज़ीराई पे कैसे छोड़ दूँ अब
हम उन की आस पे उम्रें गुज़ार देते हैं
हवा को ज़िद कि उड़ाएगी धूल हर सूरत
निकल आया हूँ आगे उस जगह से
ये शख़्स जो तुझे आधा दिखाई देता है
जगह फूलों की रखते हैं घना साया बनाते हैं