जब भी चाहूँ तेरा चेहरा सोच सकूँ
बस इतनी सी बात मिरे इम्कान में रख
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शब भर आँख में भीगा था
पत्ता हूँ आँधियों के मुक़ाबिल खड़ा हूँ मैं
हम उन की आस पे उम्रें गुज़ार देते हैं
रौशनी हस्ब-ए-ज़रूरत भी नहीं माँगते हम
सुब्ह कैसी है वहाँ शाम की रंगत क्या है
अपना जैसा भी हाल रक्खा है
लहजे और आवाज़ में रक्खा जाता है
समझ में आ तो सकती है सबा की गुफ़्तुगू भी
लोगो हम तो एक ही सूरत में हथियार उठाते हैं
मैं जिस लम्हे को ज़िंदा कर रहा हूँ मुद्दतों से
इतना भी इंहिसार मिरे साए पर न कर
ग़ज़ल उस के लिए कहते हैं लेकिन दर-हक़ीक़त हम