समझ में आ तो सकती है सबा की गुफ़्तुगू भी
मगर इस के लिए मा'सूम होना लाज़मी है
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दर-ओ-दीवार से डर लग रहा था
हम उन की आस पे उम्रें गुज़ार देते हैं
तुम उस की बातों में न आना
कल परदेस में याद आएगी ध्यान में रख
वो शब के साए में फ़स्ल-ए-नशात काटते हैं
हमें रोको नहीं हम ने बहुत से काम करने हैं
निकल आया हूँ आगे उस जगह से
क़ज़ा का तीर था कोई कमान से निकल गया
लोगो हम तो एक ही सूरत में हथियार उठाते हैं
सुब्ह कैसी है वहाँ शाम की रंगत क्या है
मैं उस का नाम ले बैठा था इक दिन