मैं उस का नाम ले बैठा था इक दिन
ज़माने को बहाना चाहिए था
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हम ने घर की सलामती के लिए
एक लम्हे को सही उस ने मुझे देखा तो है
मेरे हरे वजूद से पहचान उस की थी
दर-ओ-दीवार से डर लग रहा था
ज़रा सी देर तुझे आइना दिखाया है
उसी ने सब से पहले हार मानी
क़ज़ा का तीर था कोई कमान से निकल गया
दिल प्यासा और आँख सवाली रह जाती है
हमारे नाम की तख़्ती भी उन पे लग न सकी
अपना जैसा भी हाल रक्खा है
ग़ज़ल उस के लिए कहते हैं लेकिन दर-हक़ीक़त हम
हम उन की आस पे उम्रें गुज़ार देते हैं