तुम उस की बातों में न आना
ये दुनिया तो तमाशा देखती है
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हवा को ज़िद कि उड़ाएगी धूल हर सूरत
इस लिए मैं ने मुहाफ़िज़ नहीं रक्खे अपने
ऐ शहर-ए-सितम छोड़ के जाते हुए लोगो
वो शब के साए में फ़स्ल-ए-नशात काटते हैं
दिल प्यासा और आँख सवाली रह जाती है
सारे मंज़र में समाया हुआ लगता है मुझे
एक लम्हे को सही उस ने मुझे देखा तो है
इतना भी इंहिसार मिरे साए पर न कर
सुब्ह कैसी है वहाँ शाम की रंगत क्या है
हम उन की आस पे उम्रें गुज़ार देते हैं
लहजे और आवाज़ में रक्खा जाता है