उसे बाम-ए-पज़ीराई पे कैसे छोड़ दूँ अब
यही तन्हाई तो मेरे लिए सीढ़ी बनी है
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ऐ शहर-ए-सितम छोड़ के जाते हुए लोगो
क्या तेरा क्या मेरा ख़्वाब
लहजे और आवाज़ में रक्खा जाता है
दश्त-ए-शब में पता ही नहीं चल सका
क़ज़ा का तीर था कोई कमान से निकल गया
ग़ज़ल उस के लिए कहते हैं लेकिन दर-हक़ीक़त हम
हमारे नाम की तख़्ती भी उन पे लग न सकी
तुम उस की बातों में न आना
निकल आया हूँ आगे उस जगह से
हम उन की आस पे उम्रें गुज़ार देते हैं
दर-ओ-दीवार से डर लग रहा था