निकल आया हूँ आगे उस जगह से
जहाँ से लौट जाना चाहिए था
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दश्त-ए-शब में पता ही नहीं चल सका
रौशनी हस्ब-ए-ज़रूरत भी नहीं माँगते हम
आज निकले याद की ज़म्बील से
मैं उस का नाम ले बैठा था इक दिन
सारे मंज़र में समाया हुआ लगता है मुझे
कल परदेस में याद आएगी ध्यान में रख
दिल प्यासा और आँख सवाली रह जाती है
दर टूटने लगे कभी दीवार गिर पड़े
सुब्ह कैसी है वहाँ शाम की रंगत क्या है
उसे बाम-ए-पज़ीराई पे कैसे छोड़ दूँ अब
ज़रा सी देर तुझे आइना दिखाया है
कुछ अब के रस्म-ए-जहाँ के ख़िलाफ़ करना है