आज निकले याद की ज़म्बील से
मोर के टूटे हुए दो चार पर
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अपना जैसा भी हाल रक्खा है
ज़रा सी देर तुझे आइना दिखाया है
सुब्ह कैसी है वहाँ शाम की रंगत क्या है
एक लम्हे को सही उस ने मुझे देखा तो है
हम उन की आस पे उम्रें गुज़ार देते हैं
समझ में आ तो सकती है सबा की गुफ़्तुगू भी
दिल प्यासा और आँख सवाली रह जाती है
जब भी चाहूँ तेरा चेहरा सोच सकूँ
इतना भी इंहिसार मिरे साए पर न कर
दर टूटने लगे कभी दीवार गिर पड़े
मैं उस का नाम ले बैठा था इक दिन
दोनों हाथों से छुपा रक्खा है मुँह