दोनों हाथों से छुपा रक्खा है मुँह
आइने के वार से डरता हूँ मैं
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ये शख़्स जो तुझे आधा दिखाई देता है
दश्त-ए-शब में पता ही नहीं चल सका
लहजे और आवाज़ में रक्खा जाता है
सारे मंज़र में समाया हुआ लगता है मुझे
एक लम्हे को सही उस ने मुझे देखा तो है
तुम उस की बातों में न आना
मैं जिस लम्हे को ज़िंदा कर रहा हूँ मुद्दतों से
हमें रोको नहीं हम ने बहुत से काम करने हैं
इस लिए मैं ने मुहाफ़िज़ नहीं रक्खे अपने
उसे बाम-ए-पज़ीराई पे कैसे छोड़ दूँ अब
हम उन की आस पे उम्रें गुज़ार देते हैं
दर-ओ-दीवार से डर लग रहा था