देर लगती है बहुत लौट के आते आते
और वो इतने में हमें भूल चुका होता है
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तुम उस की बातों में न आना
कल परदेस में याद आएगी ध्यान में रख
ये शख़्स जो तुझे आधा दिखाई देता है
जो ज़िंदगी की माँग सजाते रहे सदा
हमारे नाम की तख़्ती भी उन पे लग न सकी
क्या तेरा क्या मेरा ख़्वाब
लहजे और आवाज़ में रक्खा जाता है
कभी उस से दुआ की खेतियाँ सैराब करना
उसे बाम-ए-पज़ीराई पे कैसे छोड़ दूँ अब
सुब्ह कैसी है वहाँ शाम की रंगत क्या है
दर टूटने लगे कभी दीवार गिर पड़े
आज निकले याद की ज़म्बील से