लहजे और आवाज़ में रक्खा जाता है
अब तो ज़हर अल्फ़ाज़ में रक्खा जाता है
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कभी उस से दुआ की खेतियाँ सैराब करना
जगह फूलों की रखते हैं घना साया बनाते हैं
समझ में आ तो सकती है सबा की गुफ़्तुगू भी
इस लिए मैं ने मुहाफ़िज़ नहीं रक्खे अपने
हमारे नाम की तख़्ती भी उन पे लग न सकी
दोनों हाथों से छुपा रक्खा है मुँह
क्या तेरा क्या मेरा ख़्वाब
बे-ख़्वाबी कब छुप सकती है काजल से भी
उसी ने सब से पहले हार मानी
देर लगती है बहुत लौट के आते आते
लोगो हम तो एक ही सूरत में हथियार उठाते हैं
मैं उस का नाम ले बैठा था इक दिन