नक़्श मिटते हैं तो आता है ख़याल
रेत पर हम भी कहाँ थे पहले
Jaun Eliya
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Faiz Ahmad Faiz
Allama Iqbal
Mir Taqi Mir
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वो मुझ से मेरा तआ'रुफ़ कराने आया था
पलट चलें कि ग़लत आ गए हमीं शायद
तमाम शख़्सियत उस की हसीं नज़र आई
जाने आया था क्यूँ मकान से मैं
मेरी ख़ामोशी पे थे जो तअना-ज़न
हक़ीक़तों का नई रुत की है इरादा क्या
घर का रस्ता जो भूल जाता हूँ
शुरू-ए-इश्क़ में लोगों ने इतनी शिद्दत की
हम ने जो क़सीदों को मुनासिब नहीं समझा
ये और बात कि आँधी हमारे बस में नहीं
क़यामत आएगी माना ये हादिसा होगा
उन के भी अपने ख़्वाब थे अपनी ज़रूरतें