उन के भी अपने ख़्वाब थे अपनी ज़रूरतें
हम-साए का मगर वो गला काटते रहे
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ये अलग बात कि मैं नूह नहीं था लेकिन
शुरू-ए-इश्क़ में लोगों ने इतनी शिद्दत की
दियों से आग जो लगती रही मकानों को
नक़्श मिटते हैं तो आता है ख़याल
किसी के ऐब छुपाना सवाब है लेकिन
सँभल के चलने का सारा ग़ुरूर टूट गया
इस बार उन से मिल के जुदा हम जो हो गए
पुराने अहद में भी दुश्मनी थी
हुआ उजाला तो हम उन के नाम भूल गए
शिकस्तगी में भी क्या शान है इमारत की
वो तड़प जाए इशारा कोई ऐसा देना
कभी क़रीब कभी दूर हो के रोते हैं