शिकस्तगी में भी क्या शान है इमारत की
कि देखने को इसे सर उठाना पड़ता है
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इस कार-ए-आगही को जुनूँ कह रहे हैं लोग
तिरे तक़ाज़ों पे चेहरे बदल रहा हूँ मैं
अब मिरे ब'अद कोई सर भी नहीं होगा तुलू'अ
क्या रह गया है शहर में खंडरात के सिवा
ये मस्ख़रों को वज़ीफ़े यूँही नहीं मिलते
शुरू-ए-इश्क़ में लोगों ने इतनी शिद्दत की
लोग यूँ कहते हैं अपने क़िस्से
इस बार उन से मिल के जुदा हम जो हो गए
सँभल के चलने का सारा ग़ुरूर टूट गया
उन के भी अपने ख़्वाब थे अपनी ज़रूरतें
अपने आँचल में छुपा कर मिरे आँसू ले जा
वो तड़प जाए इशारा कोई ऐसा देना