क्या रह गया है शहर में खंडरात के सिवा
क्या देखने को अब यहाँ आए हुए हैं लोग
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घर का रस्ता जो भूल जाता हूँ
जहाँ ज़िदें किया करता था बचपना मेरा
मयस्सर हो जो लम्हा देखने को
इस रास्ते में जब कोई साया न पाएगा
वो जिस के सेहन में कोई गुलाब खिल न सका
हर एक रात को महताब देखने के लिए
नज़र की ज़द में सर कोई नहीं है
किसी के ऐब छुपाना सवाब है लेकिन
चलते चलते साल कितने हो गए
अभी बिछड़ा है वो कुछ रोज़ तो याद आएगा
वो तड़प जाए इशारा कोई ऐसा देना
इस कार-ए-आगही को जुनूँ कह रहे हैं लोग