कभी क़रीब कभी दूर हो के रोते हैं
मोहब्बतों के भी मौसम अजीब होते हैं
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दियों से आग जो लगती रही मकानों को
उजाला दश्त-ए-जुनूँ में बढ़ाना पड़ता है
हम ने जो क़सीदों को मुनासिब नहीं समझा
अपने आँचल में छुपा कर मिरे आँसू ले जा
किताबें जब कोई पढ़ता नहीं था
उदास उदास तबीअ'त जो थी बहलने लगी
मैं समुंदर था मुझे चैन से रहने न दिया
इस हादसे को देख के आँखों में दर्द है
पुराने अहद में भी दुश्मनी थी
हर एक रात को महताब देखने के लिए
अपनी तस्वीर बनाओगे तो होगा एहसास
लोग यूँ कहते हैं अपने क़िस्से