जवानों में तसादुम कैसे रुकता
क़बीले में कोई बूढ़ा नहीं था
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अज़िय्यत उस की ज़ेहनी दूर कर दे
जाने आया था क्यूँ मकान से मैं
हम-अस्रों में ये छेड़ चली आई है 'अज़हर'
क्या क्या नवाह-ए-चश्म की रानाइयाँ गईं
वो तड़प जाए इशारा कोई ऐसा देना
अजब जुनून है ये इंतिक़ाम का जज़्बा
जहाँ ज़िदें किया करता था बचपना मेरा
इस हादसे को देख के आँखों में दर्द है
अपने आँचल में छुपा कर मिरे आँसू ले जा
उस को आदाब बिछड़ने के सिखाता हुआ मैं
रंगतें मासूम चेहरों की बुझा दी जाएँगी
क्या रह गया है शहर में खंडरात के सिवा